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भारतीय संस्कृति ...

भारतीय संस्कृति के संदर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों का विवेचन

Author Name : पार्वती

शोध सार
 
यद्यपि संस्कृति किसी भी राज्य या देश की सीमाओं से परे होती है, फिर भी इन सीमाओं की वजह से उसमें एक विशिष्टता आ जाती है। संस्कृति के बुनियादी व अन्तर्राष्ट्रीय होने के साथ ही इसके राष्ट्रीय पहलू भी होते हैं और इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट पहचान तथा अपने कुछ मौलिक गुण होते हैं। भारतीय संस्कृति का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय है और इसका विस्तार भारत की भौगोलिक और राष्ट्रीय सीमाओं से अधिक विस्तृत है। भारतीय संस्कृति अपनी विशिष्टता के कारण विश्व-संस्कृति से ज़रा भिन्न रूप रखती है। हिन्दी साहित्य के अनेक विद्वानों ने भारतीय संस्कृति का वर्णन अपने-अपने नज़़रिए से किया है। इनमें हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है जिन्होंने ‘विश्व बंधुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के उदात्त विचार भारतीय संस्कृति की विशेषता के संदर्भ में उद्घोषित किए हैं। द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति की परंपरा के पंडित हैं और उनके उपन्यासों में भारतीय संस्कृति तथा संस्कृति की भारतीयता का ही आख्यान है। यदि हम भारतीय संस्कृति और साहित्य के आपसी सम्बन्धों की चर्चा करें तो यह स्पष्ट होगा कि द्विवेदी जी ने केवल अपने उपन्यासों में ही नहीं अपितु अपने सम्पूर्ण साहित्य में ही भारतीय संस्कृति के स्वरूप और सामर्थ्य की खोज की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार भारतवर्ष की जनता ने अपने भौगोलिक दायरे और ऐतिहासिक परंपरा में सस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की हैं। इन उपलब्धियों को द्विवेदी जी ने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि वे कहते हैं कि भारतीय संस्कृति की सार्थकता व महानता की व्याख्या करना और उसके प्रति आदरभाव रखना यह सब मनुष्य की जय यात्रा में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से होना चाहिए, जातीय दर्द व श्रेष्ठता दिखाने के लिए नहीं। द्विवेदी जी उन विचारों के समर्थक नहीं हैं, जिनके अनुसार सभ्यता और संस्कृति का प्रसाद दुनिया भर में भारत से ही हुआ है इसलिए भारत को ‘विश्वगुरू’ माना गया है। इसके विपरीत उनके विचार से सभ्यता और संस्कृति को विश्व के मानव समुदायों ने अपनी-अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के दायरे में विकसित किया है। द्विवेदी जी जिस समय भारतीय संस्कृति का चिंतन कर रहे थे, वह भारतीय नवजागरण का दौर था। पूर्व व पश्चिम की संस्कृतियों की टकराहट की वजह से भारतीय नवजागरण का उदय हुआ। द्विवेदी जी जिस प्रकार पश्चिम से विमुख होकर पूर्णतः पूर्वाभिमुख नहीं हुए, उसी प्रकार वर्तमान की परिस्थितियों से मुँह मोड़कर पूर्णतः अतीत की शरण में नहीं गए, बल्कि वे इतिहास और परंपरा को किसी भी जाति की संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण मानते थे। द्विवेदी जी के अनुसार भारत में न केवल मिश्रित संस्कृति का अस्तित्व है बल्कि संस्कृति के कई स्तर भी हैं और प्रायः एक-दूसरे से भिन्न दिखने वाली संस्कृतियाँ भी हैं। सच तो यह है कि भारतीय संस्कृति विविध और बहुधर्मी संस्कृतियों का समुच्चय है।
 
मुख्य शब्द:- बहुधर्मी, अन्यत्र, दुर्लभ, संशोधन, अविस्मरणीय, संक्रमणकाल