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मूर्च्छना
Author Name : डाॅ0 दिवाकर नारायण पाठक
मूर्च्छना शब्द मूर्च्छ धातु से बना है जिसका अर्थ है चमकना या उभरना । अतरू मूर्च्छना का शाब्दिक अर्थ है चमकती या उभरती हुई चीजें । ग्राम के किसी स्वर को ष्स्वरितष् मानकर ग्राम के हीं स्वरों पर क्रमिक आरोह दृ अवरोह करने को मूर्च्छना कहते हैं । सात स्वरों के क्रमगत प्रक्रिया को मूर्च्छना की मूल धारणा मानते हैं । भरत ने सर्वप्रथम मूर्च्छना का सूत्रमूलक उल्लेख किया है । भरत एवं परवर्ती अन्य विचारों के अनुसार मूर्च्छना सात स्वरों की होनी चाहिए । इनमें स्वर क्रमानुसार होनी चाहिए । दोनों ग्राम का प्रत्येक स्वर एक दृ एक मूर्च्छना का मूल स्वर हो सकता है । मूर्च्छना जाति और राग की जननी है । थाट की तरह मूर्च्छना गेय नहीं रही । भरत ने केवल अवरोह मूलक मूर्च्छनाकी चर्चा की है परन्तु आधुनिक विद्वानों ने आरोह दृ अवरोह दोनों पर हीं विचार किया है । भरत ने परम्परागत स्वर दृ सप्तक में दो नए स्वर जोड़े और उन्हें स्वर साधारण की संज्ञा दी । इसी आधार पर दोनों स्वरों को स्थान देकर साधारणीकृत मूर्च्छना के प्रकार का उल्लेख किया है । बाद में शारंङदेव ने दो अन्य रुप शान्तराए सकाकली और उभयगत नाम दिया । मूर्च्छना का मूल रुप मध्य सप्तक में दो स्वरए मन्द्र सप्तक में दो स्वरए मन्द्र सप्तक के धैवत और निषाद तथा तीन स्वर के सप्तक के षडजए ऋषभ और गान्धार जुड़ा । उपर्युक्त स्वरुप के वर्त्तमान समीक्षक आर० के० श्रृंगी ने मूल की व्याख्या करते हुए मूर्च्छना के 392 प्रकार को स्पष्ट किया ।